सोमवार, नवंबर 06, 2006

लफ्ज़ तुम और मैं




लफ़्ज़ों में ताक़त कहाँ?
कह सकें जो दिल कि बात
ये तो बस आँखें ही हैं
जो छलका देतीं हैं कुछ ज़ज़्बात.
केहने को तो हर कोई;
कह ही देता है अपनी बात.
वक़्त पड़े दिखला देतें हैं
किसकी है कितनी औकात?


कभी कभी ऐसा लगता है
खंज़र घुपा हो सीने में.
रात बीत जाती आँखों में;
डूब जाता दिन रोने में.
अक्सर वो मुझसे कहते;
तुम मेरे हो सब तेरा है
कौन यहाँ किसका कितना है
वक़्त-वक़्त का फेरा है


खुदा करे हर रोज़ मिले;
एक नया मदारी जीवन में.
रोएंगे जब समझेंगे;
क्या रखा था अपनापन में.
अब ना मैं तक कर बैठा हूँ,
ठोकर खाकर ज़ीवन में;
रंग हीन औ नीरस सापनी
बेहते रेहते मेरे मन में!

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