खंड काव्य
(सर्ग - १)
(१)
यह कल्पना कपोल नहीं है,
सच है मेरे जीवन का!
सौ सौ प्रयत्न किए हैं,
तब जोड़ा है तार मन का!
(२)
कुछ बातें भूल गयी हैं,
फिर भी कुछ हैं मॅन में!
कुछ खुशियों ने भुलाया है,
कुछ डूब गयी हैं मंन में!
(३)
तुम सच हो मेरे जीवन का,
या फिर हो प्रेम कहानी!
जानती हो हाल-ये-दिल,
फिर क्यों फिरती अंजानी!
(४)
आ जाओ करीब मेरे,
अब बनाओ ना तुम बातें!
दिन कट जाता है कैसे भी,
अब कटती नहीं हैं रातें!
(५)
सौ प्रयत्न किए हैं मैंने,
हर बार भुलाना चाहा!
सौ बार संजोए सपने,
सौ बार बिखेरना चाहा!
(६)
सब कहते हैं मुझसे,
सपने टूटा ही करतें हैं!
जब हम स्वप्न नहीं सच हैं,
फिर हम क्यों बिछड़ा करते हैं?
(७)
मेरे स्वर्णडिम जीवन में,
छाई है घोर उदासी!
तुमसे मिलने को,
कब से हैं अँखियाँ प्यासी!
(८)
बिछड़ा हूँ जबसे तुमसे,
मैं जाग से ऐसा रूठा
किसी घोर पाप से जैसे
अंबर का तारा टूटा
(९)
तुम भला सुनोगे कैसे
मेरी यह व्यथित कहानी
तुम आ पहुँचे हो वहाँ तक
जहाँ छोड़ी है पद चिन्ह निशानी
(१०)
जब से तुमको देखा है
एक तीर सा दिल में लगा है
पर दर्द नहीं है मुझको
पीड़ा में प्रेम भरा है
(११)
अलकें हैं रातो सी काली
योगी को भी भटकने वाली
मैं भटक चुका हूँ इनमें
इन्हें खोलना ना मतवाली
(१२)
दीवाना बना चुकी है
तेरे गालो की लाली
लहराओ ना ज़ुल्फो को
घुटनो तक बालो वाली
(१३)
रक्ताभ सी होंठों से
मधु रस छलका ही करते हैं
प्यास बुझाने को प्यासे
मधु प्यालो में गिरतें हैं
(१४)
डटकर, छक- कर पी लें भी,
हर घूट है प्यास बढ़ाती !
हम अब तक डटे ही रहते,
गर काल चक्र ना हटती!
(१५)
मधुकलश हैं तेरी आँखें,
ले क्यों फिरती हो इठलाती!
दो घूँट का पान करा दो,
ये कलश हैं प्यास बढ़ाती!
(१६)
नयनो के तीर संभलो,
कितना भेदोगी उर को!
तुम अमर वाणी दे दो,
मेरे दग्ध हृदय के सुर को!
(१७)
क्यों भा गयी है मुझको,
तेरे सौन्दर्य की कोमलता!
मैं चाहक रहा हूँ जैसे,
मिलने वाली हो अमरता!
(१८)
तुम आई मेरे जीवन में,
हृदय के तापों को हरने!
जैसे भानु उदित होता है,
बिभावरी का तम हरने!
(१९)
फिर जैसे पूर्व दिशा में,
छा जाती सुरज की लाली
तुम छा गयी हो दिल पर
कोमल से अधरों वाली
(२०)
जैसे सूरज की रश्मि पा
रातों की बंद कमलनी खुलती
तुम्हारे रूप का दर्शन पा
हृदय की कलियाँ खिलती
(२१)
जब अरुण ओंष्ठ मुस्काते
गिरती हैं झड़ झड़ कलियाँ
जैसे रति सजधज बैठी हो
मानने को रंगरलियाँ
( To be contd...)