मीलों दूर हो तुम शायद
पर जब सपनो में आती हो,
सोये अंतर्मन को ऐसे
झंकृत कर जाती हो,
सरगम बजने लगती है
देहाकृत वीणा पे !
रक्ताभ अधरों से
मुस्कान बिखेरा करती हो
अधखुले नयनो से
नयनो की क्रीडा करती हो
रास उतर आता है
देहाकृत क्रीडांगन में
पर जब कभी,
जीवन की लहरों से टकराकर
मन अवसादित होता है
तब जब सपनो में आती हो
छू कर अपने होने का अहसास कराती हो
फौलाद संचारित होता है, हांड मांस के पुतले में
हाथों पे हाथ रख के
निःशब्द निहारा करती हो
आँखों की मूक भाषा में
ये कहती रहती हो
कब दूर हुई, दूर कहाँ हूँ तुमसे,
हर पल रहती हूँ तुम्हारे ह्रदयालय में
आलोक कुमार श्रीवास्तव 2012
पर जब सपनो में आती हो,
सोये अंतर्मन को ऐसे
झंकृत कर जाती हो,
सरगम बजने लगती है
देहाकृत वीणा पे !
रक्ताभ अधरों से
मुस्कान बिखेरा करती हो
अधखुले नयनो से
नयनो की क्रीडा करती हो
रास उतर आता है
देहाकृत क्रीडांगन में
पर जब कभी,
जीवन की लहरों से टकराकर
मन अवसादित होता है
तब जब सपनो में आती हो
छू कर अपने होने का अहसास कराती हो
फौलाद संचारित होता है, हांड मांस के पुतले में
हाथों पे हाथ रख के
निःशब्द निहारा करती हो
आँखों की मूक भाषा में
ये कहती रहती हो
कब दूर हुई, दूर कहाँ हूँ तुमसे,
हर पल रहती हूँ तुम्हारे ह्रदयालय में
आलोक कुमार श्रीवास्तव 2012