शनिवार, जनवरी 05, 2013

जब सपनो में आती हो


मीलों दूर हो तुम शायद
पर जब सपनो में आती हो,
सोये अंतर्मन को ऐसे
झंकृत कर जाती हो,
सरगम बजने लगती है
देहाकृत वीणा पे !

रक्ताभ अधरों से
मुस्कान बिखेरा करती हो
अधखुले नयनो से
नयनो की क्रीडा करती हो
रास उतर आता है
देहाकृत क्रीडांगन में

पर जब कभी,
जीवन की लहरों से टकराकर
मन अवसादित होता है
तब जब सपनो में आती हो
छू कर अपने होने का अहसास कराती हो
फौलाद संचारित होता है, हांड मांस के पुतले में

हाथों पे हाथ रख के
निःशब्द निहारा करती हो
आँखों की मूक भाषा में
ये कहती रहती हो
कब दूर हुई, दूर कहाँ हूँ तुमसे,
हर पल रहती हूँ तुम्हारे ह्रदयालय में

आलोक कुमार श्रीवास्तव 2012

मैं तनहा हूँ


मैं तनहा हूँ
पर तेरा इंतज़ार है
मालूम है तुम नहीं आओगे
फिर भी मिलने को दिल बेक़रार है

मेरी यादें कुछ बाकी हैं अभी,
या तेरी महफ़िल गुलज़ार है
बेच दिए होंगे तुमने मेरी यादें
खुदा भी बिकते हैं यह ऐसा बाज़ार है
इश्क हुआ मेरा तुमसे
मेरा पागलपन तुम्हारा अहसान है
दिए ज़ख्म अभी भरे भी नहीं
ज़ख्म खाने को फिर दिल परेशान है

मोहब्बत तो तुमसे, संभाली गयी न


मोहब्बत तो तुमसे, संभाली गयी न,
नफरत भला तुम निभाओगे कैसे !
मुझको खुद पे यकीं हो चला है,
खींचे चले आओगे भँवरे के जैसे !

गिले शिकवे याद आएंगे तुमको,
कुछ लोग मुझको बुरा भी कहेंगे !
कमियां निकाली जाएँगी मुझमें,
हर तरफ से मुझे गलत ही कहेंगे !
ऐसी महफ़िल में रह न सकोगे,
हाँ में हाँ उनकी मिलोगे कैसे!

मोहब्बत तो तुमसे, संभाली गयी न,
नफरत भला तुम निभाओगे कैसे !

भुलाने के नुस्खे बताएगी दुनिया,
मिटाने को ताल्लुक समझाएगी दुनिया !
ये भी कहेगी की रखा ही क्या था,
ऐसी मुहब्बत का फायदा ही क्या था !
लोग जब नाजुक सा दिल तोड़ देंगे,
तडपते दिल को संभालोगे कैसे !

मोहब्बत तो तुमसे, संभाली गयी न,
नफरत भला तुम निभाओगे कैसे !

कभी इस अंजुमन में तो आ


कभी इस अंजुमन में तो आ,
मौसम - ए - बहार की तरह!
रिमझिम रिमझिम, हौले हौले बरस,
पहली बारिश की फुहार की तरह!
ज़रा सी जिद से दूरियां कितनी बढ़ गयीं,
दिलों के बीच, खिंची, पत्थर की दीवार की तरह!
गुस्सा तुम्हारा अब और भी हंसीं लगता है,
छलकता है आँखों से प्यार की तरह !
दिल चाहता है दिल से लगा लो मुझे,
जेवर नहीं, बेशकीमती श्रृंगार की तरह !
या फिर मिटा दो हस्ती मेरी
उड़ा दो खाक-ए-गुबार की तरह
मेरी ज़िन्दगी भी क्या बिना तुम्हारे
वीरान उजड़े हुए मज़ार की तरह

(आलोक कुमार श्रीवास्तव 2012)

ये प्यार नहीं है, तो क्या है !




ये प्यार नहीं है, तो क्या है !
अहसास नहीं है, तो क्या है !

तन्हाई की रातों में,
जब चाँद उतर आता खिड़की पर,
सर्द हवाएं दे जाती हैं,
दस्तक चुपके चुपके खिड़की पर,
याद किसी की आती है,
आंखें टिक जाती खिड़की पर !
चादर पर सिलवट पड़ जाती है,
और तकिया नम हो जाता है!

ये प्यार नहीं है तो क्या है !
अहसास नहीं है तो क्या है !

खुद ही खुद में कुछ तो बुनती हो,
हंस कर अब सबसे मिलती हो!
वक़्त गुज़रता है अब ऐसे,
बहता पानी दरिया में जैसे,
पांव थिरकते हैं अब ऐसे,
पंछी, चंचल हो घर लौटता जैसे!
मिलने पर दिल घबराता है
और दिल की धड़कन बढ़ जाती है !

अहसास ही है कुछ और नहीं
ये प्यार ही है कुछ और नहीं

ग़ज़ल - उसकी याद ने, चैन से, सोने न दिया



हुआ जो दीदार, बिछुड़े यार से, कल रात को,
उसकी याद ने, चैन से, सोने न दिया !!
शमा की तरह, जलता रहा, विरह की आग में,
मिलन की आस ने, सुबह तक, सोने न दिया !!
महकने लगी, दर - ओ - दीवार, उसके आने से,
उसकी खुशबू ने, रात भर, सोने ने दिया !!
बज रही थी, उसकी पायल, इस कदर की,
जेहन में बस गयी, झंकार ने सोने न दिया !!
गयी जब, करके मुलाकात, कर रात को,
उसके हँसते चेहरे ने, जी भर के रोने न दिया !!
जीना नहीं अब चाहता, उसके बिना "मासूम",
उसकी अधखुली, मुस्कान ने मरने न दिया !!

अलोक कुमार श्रीवास्तव "मासूम" 2012
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1. दीदार - दर्शन
2. विरह - जुदाई
                                                                   3. दर -ओ- दीवार – doors and walls, every dewlling, every nook and corner of house
4. जेहन - mind